Saturday, November 29, 2008

शहर मैं आके क्या क्या खोया मैंने

शहर मैं आके क्या क्या खोया मैंने
जब इसका हिसाब करने लगा तो
सबसे पहले मुझे माँ की याद आयी
उस मीठी मीठी ज़ुआबं की याद आई

फीर वो दो सूनी कलाईआं मुझे घेरने लगी
जिनसे लिपट कर मैं माँ को भूल जाता था
सिर्फ उसके ही कहने पे स्कूल जाता था

कांधो मे बसता लिए स्कूल मैं जाने लगा
गुस्से मे पैर पटक आंगन की धूल उडाने लगा

आंगन वालो ने फीर खूब दिलासे दिए
छोटे भाई ने अपने हिस्से के पैसे दिए

आंगन से उतरा तो फूलो ने टोक दिया
तुम जा रहे हो…….. कहके रोक दिया

क्या करु जाना है, भविष्य भी तो बनाना है

सवालो मे रख लो जबाबो मे रख लो
फूल बोला मुझे अपनी किताबो मे रख लो

पर मैं उसे तोड़ न पाया
फीर भी अकेला छोड़ न पाया
लेकर उसकी खुशबू चला उन्ही रास्तो पर
जो रोज मेरे साथ जाते थे स्कूल पहुंचाते थे

फीर अभी कंकर-पत्थर पैरो मैं चुभने लगे
तितलियाँ भंवरे मेरे आस पास उड़ने लगे

थोडी दूर वो मंदिर वो तालाब दिखा
पानी मैं खिलता वो गुलाब दिखा

ज़रा यहाँ ठहर मिनट एक आता हूँ मैं
मन ने कहा पानी मैं मुंह देख आता हूँ मैं

पत्तो से मुंह पोंछ कर आया
मन मेरे पास लौट कर आया

अगले मोड़ पे वो दूकान मिली
खिलोनो को देख एक मुस्कान खिली

जल्दी ही अपने मन को समझाया
चल अभी अच्छा वक्त नहीं आया

सकूल पहुंचा तो सारे के सारे दोस्त मिले
सुबह सुबह सूरज-मुखी के फूल खिले

मुझे देख कर तो वो इतने हैरान हुए
और कुछ कुछ मुझसे अनजान हुए

बोले अब यहाँ क्यों आये हो तुम
लौट जाओ शहर अब पराये हो तुम
लौट जाओ शहर अब पराये हो तुम

शहर मैं आके क्या क्या खोया मैंने